राजस्थान की प्रमुख लोक देवियां:
करणी माता:
जन्म 1444 विक्रम संवत जोधपुर में सुहाप गांव में मेहा जी चारण (कीनिया शाखा) के घर हुआ। इनकी माता का नाम देवल बाई था। इनका बचपन का नाम रिदु बाई था। चमत्कार दिखाने के कारण करणी के नाम से लोकप्रिय हुई। इनका विवाह साढिका गांव के देपा जी बिठू के साथ हुआ। करणी जी ने सांसारिक जीवन का परित्याग किया और अपनी छोटी बहन गुलाब कंवर का विवाह अपने पति के साथ करवाया। जिसके लाखा नाम की संतान हुई। कोलायत झील में डूबने से लाखा की मृत्यु हुई तब करणी जी ने उसे पुन: जिंदा कर दिया। चारण जाति के इस झील के दर्शन करने नहीं जाते। करणी जी ने नेहड़ी नामक स्थान पर तपस्या की इसी स्थान पर दही बिलोना का कार्य करते थे। उन्होंने देशनोक कस्बे की स्थापना की एवं जोधपुर दुर्ग की नींव अपने हाथों से दी। इन का मंदिर मढ कहलाता है। इनका भजन चिरजा कहलाता है। इन का प्रतीक चील है। इनके मंदिर में चूहे को काबा कहते हैं, सफेद चूहे का दर्शन अति शुभ माना जाता है। देवी के मंदिर में दोनों नवरात्रों पर विशाल मेले का आयोजन होता है मेले का आकर्षण कवि सम्मेलन होता है।
जीण माता:
धंध राय की पुत्री थी जो चौहान वंश के थे। इनका मूल नाम जीणा था। उनके भाई का नाम हर्ष था जो वर्तमान में हर्ष भैरव के नाम से पूजा जाता है। इनका प्रमुख स्थान रेवासा (सीकर) है। इनकी मूर्ति नवदुर्गा की अष्टभुजी धातु की श्रंगारित मूर्ति है।उन्होंने औरंगजेब की मुगल सेना पर भ्रमर का रूप धारण कर आक्रमण किया। औरंगजेब ने प्रतिवर्ष सवा मण तेल दीपक के लिए दिल्ली से भेजने की व्यवस्था की। एक मुस्लिम परिवार को सेवा के लिए वहां पर छोड़ा। वह मुस्लिम परिवार मशक में पानी भरकर प्रात: मंदिर की सीढ़ियों को धोने का कार्य करता है, वर्तमान में भंवरु खां यह कार्य करते हैं ।विशेष अवसर पर माताजी ढाई प्याले का सेवन करती है। अन्य लोग देवियों के विपरीत मंदिर में बकरे की बलि नहीं दी जाकर प्रतीक स्वरूप केवल कान की बलि चढ़ाई जाती है । दोनों नवरात्रि में माता का विशाल मेला भरता है जीण माता का लोकगीत सबसे लंबा लोकगीत है।
शीला देवी:
इन का मंदिर आमेर जयपुर में है। आमेर के राजा मानसिंह-1 पूर्वी बंगाल के राजा केदार को पराजित करके शीला माता की मूर्ति जैसोर स्थान से यहां लाए। यह कछवाहा शासकों की इष्ट देवी है। इन की मूर्ति अष्टभुजी महिषासुर मर्दिनी जिसके कंधे पर 5 देवों की सम्मिलित प्रतिमाएं एवं बगल में हिंगलाज माता की मूर्ति है। आठों हाथों में हथियार है। दोनों नवरात्रों में विशाल मेले का आयोजन होता है। इस दौरान सर्वप्रथम राज परिवार द्वारा पूजा एवं उसके बाद भक्तों द्वारा पूजा की जाती है। इनका प्रसाद भक्तों की इच्छा अनुसार चढ़ाया जाता है जिनमें चरणामृत एवं शराब प्रमुख है।
शीतला माता:
इन का मंदिर शील की डूंगरी, चाकसू (जयपुर) में है। इस मंदिर का निर्माण सवाई माधो सिंह ने करवाया। इन्हें चेचक की देवी, सेठल माता या महामायी माता भी कहा जाता है। देवी की पूजा अनगढ़ पत्थर या खंडित रूप में की जाती है। चैत्र कृष्ण सप्तमी को ठंडा भोजन बनाते हैं एवं अगले दिन अष्टमी को प्रसाद के रूप में इसका सेवन करते हैं, जिसे बासोड़ा कहा जाता है। बांझ स्त्रियां संतान प्राप्ति के लिए शीतला माता की पूजा करती है। इन का मंदिर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 12 पर स्थित है। इनका पुजारी कुम्हार होता है एवं इन का प्रतिक मिट्टी का दीपक होता है। शीतला माता का वाहन गधा होता है। देवी का मेला बैलगाड़ी का मेला कहलाता है।
नारायणी माता:
इनका मूल नाम करमेती बाई था। इनका विवाह करणेश के साथ हुआ। सर्पदंश से पति की मृत्यु होने पर सती हो गई। इन का मंदिर बरवा डूंगरी, राजगढ़ (अलवर) में है। ये नाई जाति की कुलदेवी हैं। इनका पुजारी मीणा जाति का होता है। मंदिर प्रतिहार शैली में बना है।
राणी सती:
इनका मूल नाम नारायणी बाई का था। अग्रवाल जाति में जन्म हुआ। यह अग्रवालों की कुलदेवी के रूप में मानी जाती । इनका विवाह तनधन दास के साथ हुआ था। हिसार (हरियाणा) के सैनिकों ने धोखे से तनधन दास की हत्या कर दी थी। देवी अपने परिवार की 13 अन्य महिलाओं के साथ सती हुई। वर्तमान में दादी जी के नाम से लोकप्रिय है। इन का प्रसिद्ध मंदिर झुंझुनू में है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की अमावस्या को रानी सती का मेला लगता था वर्तमान में इसी मेले को शक्ति मेले के नाम से जाना जाता है।
कैला देवी:
इन का मंदिर काली सिंध नदी के किनारे, त्रिकूट की पहाड़ी (करौली) पर बना हुआ है। यह करौली के यादव राजवंश की कुलदेवी हैं। इन की मूर्ति स्थापना केदार गिरी नाम की योगी ने की थी। इनके मंदिर का निर्माण गोपाल सिंह ने करवाया। इन का मेला चैत्र शुक्ला अष्टमी को भरता है।
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