पन्ना चित्तौड़ के राजा राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं।
पन्ना धाय ने उदय सिंह को अपने पुत्र चंदन के समान ही पाला पोषा व दूध पिलाया इसी कारण वह धाय मां कहलायी।
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
असीम वेदना के साथ पन्ना गूजरी महल से बाहर निकली
अपने पुत्र चंदन से हाथ धोकर और अपनी असीम वेदना को अपने हृदय में समेटकर पन्ना चित्तौड़ के राजभवनों से बाहर निकली। उसे असीम वेदना थी पर वह अपने पथ से ना तो विचलित थी और ना ही उसे कोई घबराहट थी। पन्ना ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार स्वयं गुप्त रीति से किया और जब चित्तौड़ से बाहर निकली, तो उसने यह मिथ्या प्रचार कराया कि वह अपने पिता के घर जा रही है। इतना ही नही जब कोई उससे पूछता कि तेरा बेटा चंदन कहां है? तब वह उसे भी वह यही उत्तर देती थी कि वह अपने मामा के यहां है, और मैं उसके जीवन को लेकर चिंतित हूं, कहीं कोई उसकी हत्या ना कर दे।
पन्ना के इस प्रकार के विचारों से उसके धैर्य और साहस का पता चलता है कि वह कितनी बुद्घिमत्ता से काम लिया था यदि वह घबराहट अनुभव करती तो अत्याचारी को शंका हो सकती थी।
जब व्यक्ति दुःख में होता है तो बुद्घि कई गुणा बढ़ जाती है
पन्ना गुजरी एक शेरनी थी उसने अपने शौर्य का परिचय देकर किसी प्रकार से चित्तौड़ के राजभवनों से बाहर निकलने में सफल हो गयी।
पन्ना गूजरी के पास भी विकल्प था कि वह उदयसिंह का बलिदान स्वेच्छा से दिलाकर बनवीर की कृपापात्र बन सकती थी। पर उसने ऐसा नहीं किया अपने धाय माँ होने का फर्ज निभाया।
पन्ना गूजरी उन महान नारियों में सम्मिलित है, जिन्होंने अपने अनुपम योगदान से भारत के स्वतंत्रता के सूर्य को अस्त नही होने दिया।
पन्ना के इस निःस्वार्थ देश सेवा को देश के लोगों ने कभी याद किया , क्यों भुलाया गया पन्ना को
पन्ना यूं निकली दुर्ग से:
पन्ना गूजरी के गांव के हांकला गोत्रीय गूजर चित्तौड़ के दुर्ग के दक्षिणी भाग के रक्षक थे। सारा राजमहल गहरे सन्नाटे में था, जिन लोगों को ज्ञात हो गया था कि आज राणा संग्रामसिंह के वंशजों को समाप्त करने का काम बनवीर कर चुका है, वे मारे भय के कुछ नही कह रहे थे। तब पन्ना ने निश्चय किया कि वह दुर्ग के दक्षिणी भाग से ही बाहर निकलेगी। उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति लोगों में श्रद्घा थी, और दूसरे, दुर्ग के दक्षिणी भाग पर पहरा दे रहे पहरेदार उसके अपने गांव के ही लोग थे। अत: उसने उधर की ओर ही प्नस्थान किया। पहरेदारों ने बड़ी सहजता से पन्ना को राज भवन से बाहर निकाल दिया।
जा मिली अपने लाल उदयसिंह से:
पन्ना गूजरी का एक सेवक उदयसिंह को लेकर बेरिस नदी के तट पर पहुंच गये थे। इसलिए पन्ना भी वहीं पहुंच गयी। वहां पहुंचने पर उसने उदयसिंह को सकुशल देखते ही अपनी छाती से लगा लिया और चुपचाप खड़ी-खड़ी रोने लगी। बालक उदयसिंह को यह ज्ञात नही था कि मां पन्ना क्यों रो रही है । उसे नही पता था कि आज मां की ममता लुट गयी है ।
अपने पुत्र चंदन जिसे अंतिम संस्कार कर आयी थी ,सामने खड़े सुरक्षित उदय को देखकर प्रसन्नता से बरबस आंसू निकाल रहे थे
बालक उदय अपनी माता से रोने का कारण पूछे जा रहा था और पन्ना थी कि केवल रोती जा रही थी-पर बताती कुछ नही थी। रोती-रोती पन्ना ने अपने आप को संभाला और चंदन की स्मृति को कहीं दूर फेंककर उदय से कह दिया " बेटा मुझे तेरी बहुत याद आ रही थी इसलिए तुम्हें देख कर रो गई।
उदय ने फिर प्रश्न कर दिया और इस बार का प्रश्न पन्ना के सीधे कलेजा में जाकर लगा। उसने कहा कि-‘मां, मेरा भाई चंदन कहां है? उसे कहां छोड़ आयी?’
पन्ना के हृदय की चीत्कार निकल गयी, पर वह पुन: स्वयं को संभाल गयी, चुप रही कुछ नही बोली। बालक उदयसिंह गुमसुम सा खड़ा था और अपनी धाय मां की व्यथा को समझने का प्रयास कर रहा था। पन्ना का वह सेवक जो उदय को यहां तक लाये थे पन्ना के रोने से और चंदन के न आने से कुछ-कुछ समझने लगे थे कि क्या हो चुका है?पन्ना ने अब उदय को इधर-उधर की बातें समझानी आरंभ कर दीं।
अब वह अधिक समय यहां व्यतीत नही करना चाहती थी, इसलिए पुन: शेरनी का रूप धरकर अपने उदय को साथ लेकर पन्ना खींची और अपने सेवक के साथ आगे बढ़ चली। यहां से वे सभी देवल प्रतापगढ़ पहुंचे जहां का शासक उस समय सिंगराव था। उसने पन्ना की व्यथा-कथा सुनकर उससे सहानुभूति तो प्रकट की, परंतु किसी प्रकार की सहायता करने में असमर्थता प्रकट कर दी। तब पन्ना निराश होकर डूंगरपुरी के शासक आशकरण के यहां पहुंची। पर उसने भी कह दिया कि मेवाड़ के साथ शत्रुता करना मेरे वश की बात नही है, यदि किसी अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता है तो वह बताओ-मैं उसे करने का प्रयास करूंगा।
पन्ना को निराशा हुई लेकिन हारी नहीं एक शेरनी की भांति अपने इरादों पर अटल रहकर वह आगे बढ़ी।
वह ईडर के उस राज्य में भी पहुंची जहां से कभी राणा परिवार के मूल पूर्वज गुहिल से लेकर शीलादित्य तक ने शासन किया था। पर उन लोगों ने भी पन्ना को निराश ही किया। अंत में वह कमलमेर (कोमलमीर ) पहुंची जहां का शासक एक जैन मतावलंबी राजा आशाशाह था।
आशाशाह ने भी पन्ना गूजरी के दुख को सुनकर अपनी ओर से उसे किसी प्रकार की रक्षा देने में असमर्थता प्रकट कर दी। पर उस समय वहां उसकी मां भी खड़ी थी, जिसने आशाशाह को धिक्कारा और कहा कि-‘‘हे आशा! क्या इसी दिन को देखने के लिए मैं आज तक जीवित रही? मैं यह समझ नही पा रही हूँ कि तू एक अभागिन स्त्री को देखकर भी देख क्यों नही रहा है? यह स्त्री इस बच्चे को उस राक्षस के पंजों से छुड़ाकर लायी है, और एक तू है कि इसे रखने में भी आनाकानी कर रहा है। क्या तेरे पास साधनों की कमी है? यदि नही तो फिर तेरे इस राज्य का क्या लाभ....जो एक नन्हें से बच्चे को भी शरण नही दे सकता।’’
आशाशाह ने अपनी मां को बनवीर की क्रूरता के विषय में भी समझाने का प्रयास किया, परंतु राजमाता तो राजधात्री पन्ना को सहायता देने का मन बना चुकी थी। अत: उन्होंने पन्ना से कह दिया कि-‘आज से इस बच्चे की सुरक्षा का भार मेरे ऊपर है तुम निश्चिंत रहो।’
पन्ना राजधात्री ने राजमाता के मुंह से जब ये शब्द सुने तो मारे प्रसन्नता के उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। स्वतंत्रता की रक्षिका को एक धर्मरक्षिका मिल गयी थी,
पन्ना राजमाता के पैरों में गिर पड़ी-बोली-‘हे, राजमाता! आप धन्य हैं। जो आपने मेरी सहायता करने का वचन मुझे दे दिया।’
उदय की रक्षा के लिए रानी कर्मवती और धायमाता पन्ना गूजरी के पश्चात अब तीसरी माता (आशाशाह की माता) आ गयी थी। अत: पन्ना यहां से लौटने का आग्रह करती है। आशाशाह की माता उसे भी यहीं रहने के लिए कहती है। पर पन्ना जानती थी कि कई स्थानों पर उसके और उदय के जीवित होने की सूचना लोगों को हो चुकी है, तो बनवीर को भी उसके गुप्तचरों के माध्यम से सूचना मिल सकती है कि वह दोनों जीवित हैं और तब वह उनकी हत्या के लिए कोई भी कार्य कर सकता है। इसलिए उदय को पूर्णत: सुरक्षित समझकर वह वहां से चलना चाहती है, पर तभी उदय ने उसका पल्लू पकडक़र रोना आरंभ कर दिया। पन्ना के लिए वे क्षण पुन: भावुक हो गये, उसने रोते-रोते अपने उदय को पल्लू से दूर किया। तभी आशाशाह उदय का रोना बंद कराने का प्रयास करता है, बच्चे को इधर -उधर की बातों में लगाने का प्रयास करता है, पर इस सब के उपरांत भी उदय का रोना बंद नही हुआ, वह भीतर ही भीतर रोता था और उसकी रोने की आवाज को सुनकर पन्ना बाहर बैठी रोती थी।
मन तो चाहता था कि उठकर भागी चली जाऊं और अपने उदय को छाती से लगा लूं। पर वह हृदय पर पत्थर रखकर आशाशाह के भवन से बाहर चल दी। उसकी आंखों में आंसू थे और एक अदभुत चमक भी थी। आंसू उदय और चंदन को लेकर थे तो चमक इस बात से थी कि अब वह उदय की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो गयी थी।
बालक उदय भवन के झरोखों से झांकता हुआ मां....मां...चिल्लाता था और मां एक बार पीछे मुडक़र देखती तो फिर आगे चलती। रोती हुई पन्ना धीरे-धीरे महल से दूर हो गयी। उदय झरोखों से नीचे दीवार के साथ मासूम सा बैठकर सुबकियां ले रहा था और पन्ना स्वयं भी अपने रास्ते पर बढ़ती अब केवल सुबकियां ही ले रही थी।
स्वतंत्रता की साधना इसी को कहते हैं जो युग-युगों तक लोगों को प्रेरित करे और अपने आंसुओं को निकालने के लिए बाध्य कर दे। पन्ना के अदभुत बलिदान के इस वर्णन के बिना हमारा इतिहास अधूरा है।
पन्ना राजधात्री असीम वेदना और करूणा को अपने भीतर समेटकर जैसे-तैसे चित्तौड़ के दुर्ग के द्वार पर पहुंची, उसके वहां पहुंचते ही उसके सेवक और सेविकाएं उसकी ओर दौड़े। सबने उससे उसके मायके के विषय में पूछा कि वहां लोग कैसे हैं, चंदन कैसा है? इत्यादि।
चंदन का नाम आने पर माता की आंखों में पुन: आंसू छलक आये।
उधर बनवीर को अब विश्वास हो गया था कि अब राणा संग्राम सिंह का कोई वंशज पृथ्वी पर नही रहा है। इसलिए उसकी दानव प्रवृत्ति और भी अधिक बढ़ गयी, वह लोगों के साथ क्रूरता का व्यवहार करने लगा। जिससे सरदारों में उसके प्रति असंतोष बढ़ता गया और वे उससे किसी भी प्रकार से मुक्ति पाने का प्रयत्न करने लगे।
इन सरदारों को प्रसन्न करने के लिए एक दिन बनवीर ने एक विशाल सहभोज का आयोजन किया। क्योंकि वह जानता था कि यदि ये सरदार लोग अप्रसन्न रहे तो ये राणावंश के किसी भी व्यक्ति के मिलते ही उसे सिंहासनारूढ़ कर देंगे। जब सहभोज का आयोजन किया गया तो राणा के दांये-बांये बैठने वाले सरदारों में सरदार चूड़ावत था।
उस समय की परंपरा के अनुसार राणा बनवीर ने अपने थाल में से कुछ सामग्री उठाकर चूड़ावत के थाल में रख दी। इसे उस समय राजा के विशेष स्नेह का प्रतीक माना जाया करता था। चूड़ावत बनवीर को राजा तो मानता था, पर कुलीन नही मानता था, इसलिए उसे बनवीर का यह कृत्य अच्छा नही लगा। चूड़ावत मारे क्रोध के जल उठा और वह थाली से उठ गया। इतना ही नही वह अन्य सरदारों से कहने लगा कि आप लोगों को भले ही ये मेरा सम्मान लगा हो पर वस्तुत: ये मेरा अपमान है, और मैं मानता हूं कि बनवीर ने मेरा ही नही आपका भी अपमान किया है।
यह कहकर चूड़ावत तो वहां से चला ही गया, पर शेष सरदार भी भोजन को छोडक़र उठ लिये। इससे बनवीर और सरदारों के मध्य वैमनस्यता और बढ़ गयी।
उधर राजा आशाशाह ने उदय सिंह को अपना भतीजा बताकर उसकी क्षत्रियोचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया। कुछ लोगों की यह धारणा रही है कि उदयसिंह को वीरोचित शिक्षा-दीक्षा नही मिली, इसलिए वह अपना क्षत्रियोचित विकास करने में असफल रहा, परंतु यह भ्रांत धारणा है। वह राजा आशाशाह की छत्रछाया में शीघ्र ही एक साहसी क्षत्रिय बन गया था। उसके विषय में देवला, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, कुंभलगढ़ के शासकों को तो ये ज्ञात ही था कि राणा सांगा का एक पुत्र अभी जीवित है, तो ये समाचार धीरे-धीरे चित्तौड़ भी पहुंच गया और जब यह समाचार चित्तौड़ के सरदारों को मिला तो उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई। उन्होंने वास्तविकता की जानकारी करने के लिए कुंभलगढ़ जाना आरंभ कर दिया। एक-एक कर कई सरदार कुंभलगढ़ होकर आये।
उधर एक दिन बनवीर से एक सेवक ने कह दिया कि उदयसिंह अभी जीवित है तो उसने उदयसिंह के विषय में सही जानकारी देने के लिए पन्ना को दरबार में बुला भेजा। पर पन्ना बड़ी समझदारी से बनवीर को मूर्ख बनाने में सफल हो गयी और बनवीर को पुन: विश्वास हो गया कि उदयसिंह अब जीवित नही है। वैसे भी वह यह मानता था कि उदयसिंह का वध उसने स्वयं ही किया है, अत: उसके जीवित होने का कोई प्रश्न ही नही है।
उदय सिंह का राज तिलक:
अब उदयसिंह के विषय में सही जानकारी मिलने पर चित्तौड़ के कई सरदार एक साथ कुंभलगढ़ गये तो राजा आशाशाह ने उन्हें उदयसिंह के विषय में स्पष्ट कर दिया कि उसे यहां भेजने के लिए पन्नाधाय धन्य है। सारे सरदार पन्ना के त्याग से अभिभूत हो उठे। उन्होंने बूंदी के हाड़ा सरदार तथा पन्ना को गुप्त रूप से कुंभलगढ़ बुलवा लिया।
पन्ना आशाशाह के दरबार में पहुंची। उदयसिंह एक बार तो उसे पहचान नही पाया, पर जब उसने पन्ना की आंखों में आंसू देखे तो उसे उसका चेहरा स्मरण हो आया और वह दौडक़र उसकी छाती से चिपट गया
पन्ना रोती जाती थी और उदयसिंह पर अपने ममत्व की वर्षा भी करती जाती थी। हर हृदय ने मां पन्ना के असीम त्याग और बुद्घि चातुर्य को मुक्त कंठ से सराहा और उस देवी के प्रति सबके हृदय में श्रद्घा का सागर उमड़ आया। आशाशाह के प्रति भी सभी सामंतों ने आभार व्यक्त किया।
1540 ई में सभी सामंतों ने माता पन्नाधाय की उपस्थिति में कुंभलगढ़ के राजसिंहासन पर बिठाकर राणा उदयसिंह का राजतिलक किया। पन्ना की आंखों में पुन: आंसू छलक आये, वह अपने आपको आज धन्य मान रही थी।
उदयसिंह के जीवित होने की सूचना अब बनवीर को भी मिल गयी थी, इसलिए वह उससे युद्घ के लिए सेना तैयार करने लगा। उधर अपने सरदारों के साथ उदयसिंह भी चित्तौड़ के लिए चल दिया। चित्तौड़ के निकट महोली नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में घमासान युद्घ हुआ। बनवीर को अंत में युद्घ क्षेत्र से भागना पड़ा और वह चित्तौड़ दुर्ग में ही आकर छिप गया।
तब राणा उदय ने उसका पीछे करते हुए चित्तौड़ में प्रवेश किया। चित्तौडग़ढ़ का पहरेदार राणा सांगा का निष्ठावान व्यक्ति था जिसने राणा उदयसिंह का सहयोग करने का मन बनाया और भीतर आने की बात कहकर बनवीर से दुर्ग का द्वार रात में खोलने की अनुमति प्राप्त कर रात्रि में द्वार खोल दिया।
द्वार खुलते ही राणा उदयसिंह की सेना भीतर प्रविष्ट हो गयी। किले में भयंकर युद्घ हुआ और बनवीर मार दिया गया। प्रात: काल होते-होते चित्तौड़ पर राणा उदयसिंह का ध्वज लहरा उठा। यह घटना जुलाई 1540 ई. के प्रारंभ की है। उस समय राणा उदयसिंह की आयु 18 वर्ष की थी। राणा का यहां विधिवत राजतिलक किया गया
उदयसिंह अपने सिंहासन से उतरा और उसने धायमाता की चरण वंदना की।