Monday, January 7, 2019

राजस्थान के प्रमुख संत और सम्प्रदाय-

राजस्थान के प्रमुख संत और सम्प्रदाय-

राजस्थान में भक्ति आन्दोलन धन्ना जाट लाए।
राजस्थान में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संत, संत पीपा थे।

भक्ति आंदोलन

 14 -15 वीं शताब्दी में सम्पुर्ण भारत में भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के लिए जो आंदोलन चलाया उसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है।

 भक्ति के साधन: 

संतों ने मोक्ष प्राप्ति के तीन साधन बताए हैं-

1. कर्म- सर्वप्रथम उल्लेख गीता में

2. ज्ञान- सर्वप्रथम उल्लेख शंकराचार्य के दर्शन में

3. भक्ति- सर्वप्रथम उल्लेख श्वेतास्वर उपनिषद में

प्रमुख संत:

 धन्ना जाट का जन्म धुनन गांव (टोंक)  में सन् 1415 ईस्वी में हुआ था। उनके पिता का नाम रामेश्वर जाट था। इन्होंने बनारस में रामानंद जी से दीक्षा ली एवं उनके आदेश के अनुसार भक्ति को फैलाया। राजस्थान में सर्वप्रथम भक्ति को लाने का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है। धन्ना जाट के भक्ति गीत सिखों के आदिग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहिब) में संग्रहित थे। संत धन्ना की याद में धुनन गांव (टोंक) में मेले का आयोजन होता है। इस मेले में पंजाबी भक्त भाग लेते हैं। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ का नाम 'संत धन्ना जी री आरती' है।

संत पीपा: 

संत पीपा का जन्म 1425 ईस्वी में गागरोन का दुर्ग (झालावाड़) में हुआ। इनके पिता खींची शासक कड़ावा राव थे। इनकी माता का नाम लक्ष्मीवती था। इनकी पत्नी का नाम सीता सेलखड़ी था।
यह पिता की मृत्यु के बाद गागरोन के शासक बने इस दौरान गागरोन किले का शासन प्रबंध संभालते हुए इन्होंने दिल्ली के शासक फिरोज तुगलक को पराजित किया। कालांतर में बनारस गए और वहां रामानंद जी के शिष्य बन गए। उनका मूल नाम प्रताप सिंह था। संत रामानंद ने उन्हें दीक्षा देने के पश्चात आदेश दिया कि वे राजपाट का परित्याग करें और साधु संतों की सेवा करते हुए भक्ति की धारा को फैलाने का कार्य करें। अर्थात रामानंद ने प्रताप सिंह को कहा भक्ति रूपी रस को तू भी पी और दूसरों को भी पिला। इसी कारण जनमानस में प्रताप सिंह पीपा के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
संत पीपा भक्ति करते हुए द्वारका गए जहां पर उन्होंने हरि के दर्शन किए।
संत पीपा ने राजपाट का परित्याग कर दिया और अपनी पत्नी के साथ समदड़ी बाड़मेर गांव में आ गए और भक्ति करने लगे। पति पत्नी दोनों ने भीख न लेकर के कपड़े सील कर अपना गुजारा चलाते थे। इसलिए कालांतर में दर्जियों के आराध्य देव कहलाए। संत पीपा ने अपना अंतिम समय टोंक जिले के टोडा नामक स्थान पर एक गुफा में व्यतीत किया। वर्तमान में यह गुफा संत पीपा की गुफा कहलाती है।

संत दादू दयाल :

संत दादू दयाल का जन्म 1544 ई. में अहमदाबाद में हुआ। पालन पोषण संत लोधी राम ने किया जो इनके प्रथम गुरु थे। इनके आध्यात्मिक गुरु का नाम ब्रह्मानंद था। संत दादू 1567-68 ई. मैं राजस्थान में सांभर नामक स्थान पर आए। उन्होंने यहाँ धुनी का काम प्रारंभ कर दिया। आमेर नरेश भगवंत दास इनसे अत्यधिक प्रभावित हुए थे। कालांतर में संत दादू को आमेर के शासक मानसिंह प्रथम ने अपना गुरु बनाया। मुगल सम्राट अकबर ने 1585 में संत दादू दयाल को फतेहपुर सिकरी आमंत्रित किया, जहां इबादत खाने में ज्ञान चर्चा की। संत दादू ने पुत्र गोद लेने की परंपरा पर चालू की। कबीर के समान दादू ने भी गुरु के महत्व पर अत्यधिक बल दिया तथा बताया कि वैवाहिक जीवन भक्ति में कहीं पर भी बाधक नहीं है। दादू को राजस्थान का कबीर कहा जाता है। संत दादू में दादू पंथ की स्थापना की।

दादू दयाल के प्रमुख ग्रंथ:

दादू दयाल री वाणी- इसमें 8000 छंद है 
दादू दयाल रा दूहा- सदुकड़ी भाषा में जनसंवाद 

दादू की विशेषता:

 दादू ने उपदेश जनसामान्य की भाषा में दिये (सदुकड़ी भाषा) 
दादू की मृत्यु के बाद दादू पंथ 5 भाग में हो गया-
1. खालसा 
2. खाकी 
3. उत्तरादे 
4. वीरक्त
5. नागा-सैनिक संगठन- सूरंदास 
इन का पूजा स्थल दादू द्वारा एवं सत्संग स्थल अलख दरीबा कहलाता है।
 दादू दयाल के 5 पूज्य स्थल जो पंचतीर्थ कहलाते हैं-
1. सांभर
2. भेराणा
3. नरेना
4. आमेर 
5. कल्याणपुर

Saturday, January 5, 2019

Lok Deviya | राजस्थान की प्रमुख लोक देवियां 1

राजस्थान की प्रमुख लोक देवियां:

 करणी माता:

जन्म 1444 विक्रम संवत जोधपुर में सुहाप गांव में मेहा जी चारण (कीनिया शाखा) के घर हुआ। इनकी माता का नाम देवल बाई था। इनका बचपन का नाम रिदु बाई था। चमत्कार दिखाने के कारण करणी के नाम से लोकप्रिय हुई। इनका विवाह साढिका गांव के देपा जी बिठू के साथ हुआ। करणी जी ने सांसारिक जीवन का परित्याग किया और अपनी छोटी बहन गुलाब कंवर का विवाह अपने पति के साथ करवाया। जिसके लाखा नाम की संतान हुई। कोलायत झील में डूबने से लाखा की मृत्यु हुई तब करणी जी ने उसे पुन: जिंदा कर दिया। चारण जाति के इस झील के दर्शन करने नहीं जाते। करणी जी ने नेहड़ी नामक स्थान पर तपस्या की इसी स्थान पर दही बिलोना का कार्य करते थे। उन्होंने देशनोक कस्बे की स्थापना की एवं जोधपुर दुर्ग की नींव अपने हाथों से दी। इन का मंदिर मढ कहलाता है। इनका भजन चिरजा कहलाता है। इन का प्रतीक चील है। इनके मंदिर में चूहे को काबा कहते हैं, सफेद चूहे का दर्शन अति शुभ माना जाता है। देवी के मंदिर में दोनों नवरात्रों पर विशाल मेले का आयोजन होता है मेले का आकर्षण कवि सम्मेलन होता है।

जीण माता:

 धंध राय की पुत्री थी जो चौहान वंश के थे। इनका मूल नाम जीणा था। उनके भाई का नाम हर्ष था जो वर्तमान में हर्ष भैरव के नाम से पूजा जाता है। इनका प्रमुख स्थान रेवासा (सीकर) है। इनकी मूर्ति नवदुर्गा की अष्टभुजी धातु की श्रंगारित मूर्ति है।उन्होंने औरंगजेब की मुगल सेना पर भ्रमर का रूप धारण कर आक्रमण किया। औरंगजेब ने प्रतिवर्ष सवा मण तेल दीपक के लिए दिल्ली से भेजने की व्यवस्था की। एक मुस्लिम परिवार को सेवा के लिए वहां पर छोड़ा। वह मुस्लिम परिवार मशक में पानी भरकर प्रात: मंदिर की सीढ़ियों को धोने का कार्य करता है, वर्तमान में भंवरु खां यह कार्य करते हैं ।विशेष अवसर पर माताजी ढाई प्याले का सेवन करती है। अन्य लोग देवियों के विपरीत मंदिर में बकरे की बलि नहीं दी जाकर प्रतीक स्वरूप केवल कान की बलि चढ़ाई जाती है । दोनों नवरात्रि में माता का विशाल मेला भरता है जीण माता का लोकगीत सबसे लंबा लोकगीत है।

शीला देवी:

इन का मंदिर आमेर जयपुर में है। आमेर के राजा मानसिंह-1  पूर्वी बंगाल के राजा केदार को पराजित करके शीला माता की मूर्ति जैसोर स्थान से यहां लाए। यह कछवाहा शासकों की इष्ट देवी है। इन की मूर्ति अष्टभुजी महिषासुर मर्दिनी जिसके कंधे पर 5 देवों की सम्मिलित प्रतिमाएं एवं बगल में हिंगलाज माता की मूर्ति है। आठों हाथों में हथियार है। दोनों नवरात्रों में विशाल मेले का आयोजन होता है। इस दौरान सर्वप्रथम राज परिवार द्वारा पूजा एवं उसके बाद भक्तों द्वारा पूजा की जाती है। इनका प्रसाद भक्तों की इच्छा अनुसार चढ़ाया जाता है जिनमें चरणामृत एवं शराब प्रमुख है।

शीतला माता: 

इन का मंदिर शील की डूंगरी, चाकसू (जयपुर) में है। इस मंदिर का निर्माण सवाई माधो सिंह ने करवाया। इन्हें चेचक की देवी, सेठल माता या महामायी माता भी कहा जाता है। देवी की पूजा अनगढ़ पत्थर या खंडित रूप में की जाती है। चैत्र कृष्ण सप्तमी को ठंडा भोजन बनाते हैं एवं अगले दिन अष्टमी को प्रसाद के रूप में इसका सेवन करते हैं, जिसे बासोड़ा कहा जाता है। बांझ स्त्रियां संतान प्राप्ति के लिए शीतला माता की पूजा करती है। इन का मंदिर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या- 12 पर स्थित है। इनका पुजारी कुम्हार होता है एवं इन का प्रतिक मिट्टी का दीपक होता है। शीतला माता का वाहन गधा होता है। देवी का मेला बैलगाड़ी का मेला कहलाता है।

नारायणी माता:

इनका मूल नाम करमेती बाई था। इनका विवाह करणेश के साथ हुआ। सर्पदंश से पति की मृत्यु होने पर सती हो गई। इन का मंदिर बरवा डूंगरी, राजगढ़ (अलवर) में है। ये नाई जाति की कुलदेवी हैं। इनका पुजारी मीणा जाति का होता है। मंदिर प्रतिहार शैली में बना है।

राणी सती:

 इनका मूल नाम नारायणी बाई का था। अग्रवाल जाति में जन्म हुआ। यह अग्रवालों की कुलदेवी के रूप में मानी जाती । इनका विवाह तनधन दास के साथ हुआ था। हिसार (हरियाणा) के सैनिकों ने धोखे से तनधन दास की हत्या कर दी थी। देवी अपने परिवार की 13 अन्य महिलाओं के साथ सती हुई। वर्तमान में दादी जी के नाम से लोकप्रिय है। इन का प्रसिद्ध मंदिर झुंझुनू में है। प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की अमावस्या को रानी सती का मेला लगता था वर्तमान में इसी मेले को शक्ति मेले के नाम से जाना जाता है।

कैला देवी:

 इन का मंदिर काली सिंध नदी के किनारे, त्रिकूट की पहाड़ी (करौली) पर बना हुआ है। यह करौली के यादव राजवंश की कुलदेवी हैं। इन की मूर्ति स्थापना केदार गिरी नाम की योगी ने की थी। इनके मंदिर का निर्माण गोपाल सिंह ने करवाया। इन का मेला चैत्र शुक्ला अष्टमी को भरता है।

Wednesday, January 2, 2019

पन्ना धाय। भारत की महान नारी

पन्ना धाय:

पन्ना चित्तौड़ के राजा  राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह की धाय माँ थीं। पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। 
पन्ना धाय ने उदय सिंह को अपने पुत्र चंदन के समान ही पाला पोषा व दूध पिलाया इसी कारण वह धाय मां कहलायी।
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। उसने राणा के वंशजों को एक-एक कर मार डाला। बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। बनवीर को पता न लगे इसलिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। स्वामिभक्त वीरांगना पन्ना धन्य हैं! जिसने अपने कर्तव्य-पूर्ति में अपनी आँखों के तारे पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
असीम वेदना के साथ पन्ना गूजरी महल से बाहर निकली
अपने पुत्र चंदन से हाथ धोकर और अपनी असीम वेदना को अपने हृदय में समेटकर पन्ना चित्तौड़ के राजभवनों से बाहर निकली। उसे असीम वेदना थी पर वह अपने पथ से ना तो विचलित थी और ना ही उसे कोई घबराहट थी। पन्ना ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार स्वयं गुप्त रीति से किया और जब चित्तौड़ से बाहर निकली, तो उसने यह मिथ्या प्रचार कराया कि वह अपने पिता के घर जा रही है। इतना ही नही जब कोई उससे पूछता कि तेरा बेटा चंदन कहां है? तब वह उसे भी वह यही उत्तर देती थी कि वह अपने मामा के यहां है, और मैं उसके जीवन को लेकर चिंतित हूं, कहीं कोई उसकी हत्या ना कर दे।
पन्ना के इस प्रकार के विचारों से उसके धैर्य और साहस का पता चलता है कि वह कितनी बुद्घिमत्ता से काम लिया था यदि वह घबराहट अनुभव करती तो अत्याचारी को शंका हो सकती थी।
जब व्यक्ति दुःख में होता है तो बुद्घि कई गुणा बढ़ जाती है
पन्ना गुजरी एक शेरनी थी उसने अपने शौर्य का परिचय देकर किसी प्रकार से चित्तौड़ के राजभवनों से बाहर निकलने में सफल हो गयी।
पन्ना गूजरी के पास भी विकल्प था कि वह उदयसिंह का बलिदान स्वेच्छा से दिलाकर बनवीर की कृपापात्र बन सकती थी। पर उसने ऐसा नहीं किया अपने धाय माँ होने का फर्ज निभाया।
पन्ना गूजरी उन महान नारियों में सम्मिलित है, जिन्होंने अपने अनुपम योगदान से भारत के स्वतंत्रता के सूर्य को अस्त नही होने दिया।
पन्ना के इस निःस्वार्थ देश सेवा को देश के लोगों ने कभी याद किया , क्यों भुलाया गया पन्ना को

पन्ना यूं निकली दुर्ग से:

पन्ना गूजरी के गांव के हांकला गोत्रीय गूजर चित्तौड़ के दुर्ग के दक्षिणी भाग के रक्षक थे। सारा राजमहल गहरे सन्नाटे में था, जिन लोगों को ज्ञात हो गया था कि आज राणा संग्रामसिंह के वंशजों को समाप्त करने का काम बनवीर कर चुका है, वे मारे भय के कुछ नही कह रहे थे। तब पन्ना ने निश्चय किया कि वह दुर्ग के दक्षिणी भाग से ही बाहर निकलेगी। उसके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति लोगों में श्रद्घा थी, और दूसरे, दुर्ग के दक्षिणी भाग पर पहरा दे रहे पहरेदार उसके अपने गांव के ही लोग थे। अत: उसने उधर की ओर ही प्नस्थान किया। पहरेदारों ने बड़ी सहजता से पन्ना को राज भवन से बाहर निकाल दिया।

जा मिली अपने लाल उदयसिंह से:

पन्ना गूजरी का एक सेवक उदयसिंह को लेकर बेरिस नदी के तट पर पहुंच गये थे। इसलिए पन्ना भी वहीं पहुंच गयी। वहां पहुंचने पर उसने उदयसिंह को सकुशल देखते ही अपनी छाती से लगा लिया और चुपचाप खड़ी-खड़ी रोने लगी। बालक उदयसिंह को यह ज्ञात नही था कि मां पन्ना क्यों रो रही है । उसे नही पता था कि आज मां की ममता लुट गयी है ।
अपने पुत्र चंदन जिसे अंतिम संस्कार कर आयी थी ,सामने खड़े सुरक्षित उदय को देखकर प्रसन्नता से बरबस आंसू निकाल रहे थे
बालक उदय अपनी माता से रोने का कारण पूछे जा रहा था और पन्ना थी कि केवल रोती जा रही थी-पर बताती कुछ नही थी। रोती-रोती पन्ना ने अपने आप को संभाला और चंदन की स्मृति को कहीं दूर फेंककर उदय से कह दिया " बेटा मुझे तेरी बहुत याद आ रही थी इसलिए तुम्हें देख कर रो गई।
उदय ने फिर प्रश्न कर दिया और इस बार का प्रश्न पन्ना के सीधे कलेजा में जाकर लगा। उसने कहा कि-‘मां, मेरा भाई चंदन कहां है? उसे कहां छोड़ आयी?’
पन्ना के हृदय की चीत्कार निकल गयी, पर वह पुन: स्वयं को संभाल गयी, चुप रही कुछ नही बोली। बालक उदयसिंह गुमसुम सा खड़ा था और अपनी धाय मां की व्यथा को समझने का प्रयास कर रहा था। पन्ना का वह सेवक जो उदय को यहां तक लाये थे पन्ना के रोने से और चंदन के न आने से कुछ-कुछ समझने लगे थे कि क्या हो चुका है?पन्ना ने अब उदय को इधर-उधर की बातें समझानी आरंभ कर दीं। 

अब वह अधिक समय यहां व्यतीत नही करना चाहती थी, इसलिए पुन: शेरनी का रूप धरकर अपने उदय को साथ लेकर पन्ना खींची और अपने सेवक के साथ आगे बढ़ चली। यहां से वे सभी देवल प्रतापगढ़ पहुंचे जहां का शासक उस समय सिंगराव था। उसने पन्ना की व्यथा-कथा सुनकर उससे सहानुभूति तो प्रकट की, परंतु किसी प्रकार की सहायता करने में असमर्थता प्रकट कर दी। तब पन्ना निराश होकर डूंगरपुरी के शासक आशकरण के यहां पहुंची। पर उसने भी कह दिया कि मेवाड़ के साथ शत्रुता करना मेरे वश की बात नही है, यदि किसी अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता है तो वह बताओ-मैं उसे करने का प्रयास करूंगा।
पन्ना को निराशा हुई लेकिन हारी नहीं एक शेरनी की भांति अपने इरादों पर अटल रहकर वह आगे बढ़ी।
वह ईडर के उस राज्य में भी पहुंची जहां से कभी राणा परिवार के मूल पूर्वज गुहिल से लेकर शीलादित्य तक ने शासन किया था। पर उन लोगों ने भी पन्ना को निराश ही किया। अंत में वह कमलमेर (कोमलमीर ) पहुंची जहां का शासक एक जैन मतावलंबी राजा आशाशाह था।
आशाशाह ने भी पन्ना गूजरी के दुख को सुनकर अपनी ओर से उसे किसी प्रकार की रक्षा देने में असमर्थता प्रकट कर दी। पर उस समय वहां उसकी मां भी खड़ी थी, जिसने आशाशाह को धिक्कारा और कहा कि-‘‘हे आशा! क्या इसी दिन को देखने के लिए मैं आज तक जीवित रही? मैं यह समझ नही पा रही हूँ कि तू एक अभागिन स्त्री को देखकर भी देख क्यों नही रहा है? यह स्त्री इस बच्चे को उस राक्षस के पंजों से छुड़ाकर लायी है, और एक तू है कि इसे रखने में भी आनाकानी कर रहा है। क्या तेरे पास साधनों की कमी है? यदि नही तो फिर तेरे इस राज्य का क्या लाभ....जो एक नन्हें से बच्चे को भी शरण नही दे सकता।’’
आशाशाह ने अपनी मां को बनवीर की क्रूरता के विषय में भी समझाने का प्रयास किया, परंतु राजमाता तो राजधात्री पन्ना को सहायता देने का मन बना चुकी थी। अत: उन्होंने पन्ना से कह दिया कि-‘आज से इस बच्चे की सुरक्षा का भार मेरे ऊपर है तुम निश्चिंत रहो।’
पन्ना राजधात्री ने राजमाता के मुंह से जब ये शब्द सुने तो मारे प्रसन्नता के उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े। स्वतंत्रता की रक्षिका को एक धर्मरक्षिका मिल गयी थी,
पन्ना राजमाता के पैरों में गिर पड़ी-बोली-‘हे, राजमाता! आप धन्य हैं। जो आपने मेरी सहायता करने का वचन मुझे दे दिया।’
उदय की रक्षा के लिए रानी कर्मवती और धायमाता पन्ना गूजरी के पश्चात अब तीसरी माता (आशाशाह की माता) आ गयी थी। अत: पन्ना यहां से लौटने का आग्रह करती है। आशाशाह की माता उसे भी यहीं रहने के लिए कहती है। पर पन्ना जानती थी कि कई स्थानों पर उसके और उदय के जीवित होने की सूचना लोगों को हो चुकी है, तो बनवीर को भी उसके गुप्तचरों के माध्यम से सूचना मिल सकती है कि वह दोनों जीवित हैं और तब वह उनकी हत्या के लिए कोई भी कार्य कर सकता है। इसलिए उदय को पूर्णत: सुरक्षित समझकर वह वहां से चलना चाहती है, पर तभी उदय ने उसका पल्लू पकडक़र रोना आरंभ कर दिया। पन्ना के लिए वे क्षण पुन: भावुक हो गये, उसने रोते-रोते अपने उदय को पल्लू से दूर किया। तभी आशाशाह उदय का रोना बंद कराने का प्रयास करता है, बच्चे को इधर -उधर की बातों में लगाने का प्रयास करता है, पर इस सब के उपरांत भी उदय का रोना बंद नही हुआ, वह भीतर ही भीतर रोता था और उसकी रोने की आवाज को सुनकर पन्ना बाहर बैठी रोती थी।
मन तो चाहता था कि उठकर भागी चली जाऊं और अपने उदय को छाती से लगा लूं। पर वह हृदय पर पत्थर रखकर आशाशाह के भवन से बाहर चल दी। उसकी आंखों में आंसू थे और एक अदभुत चमक भी थी। आंसू उदय और चंदन को लेकर थे तो चमक इस बात से थी कि अब वह उदय की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो गयी थी।
बालक उदय भवन के झरोखों से झांकता हुआ मां....मां...चिल्लाता था और मां एक बार पीछे मुडक़र देखती तो फिर आगे चलती। रोती हुई पन्ना धीरे-धीरे महल से दूर हो गयी। उदय झरोखों से नीचे दीवार के साथ मासूम सा बैठकर सुबकियां ले रहा था और पन्ना स्वयं भी अपने रास्ते पर बढ़ती अब केवल सुबकियां ही ले रही थी।
स्वतंत्रता की साधना इसी को कहते हैं जो युग-युगों तक लोगों को प्रेरित करे और अपने आंसुओं को निकालने के लिए बाध्य कर दे। पन्ना के अदभुत बलिदान के इस वर्णन के बिना हमारा इतिहास अधूरा है।
पन्ना राजधात्री असीम वेदना और करूणा को अपने भीतर समेटकर जैसे-तैसे चित्तौड़ के दुर्ग के द्वार पर पहुंची, उसके वहां पहुंचते ही उसके सेवक और सेविकाएं उसकी ओर दौड़े। सबने उससे उसके मायके के विषय में पूछा कि वहां लोग कैसे हैं, चंदन कैसा है? इत्यादि।
चंदन का नाम आने पर माता की आंखों में पुन: आंसू छलक आये।
उधर बनवीर को अब विश्वास हो गया था कि अब राणा संग्राम सिंह का कोई वंशज पृथ्वी पर नही रहा है। इसलिए उसकी दानव प्रवृत्ति और भी अधिक बढ़ गयी, वह लोगों के साथ क्रूरता का व्यवहार करने लगा। जिससे सरदारों में उसके प्रति असंतोष बढ़ता गया और वे उससे किसी भी प्रकार से मुक्ति पाने का प्रयत्न करने लगे।
इन सरदारों को प्रसन्न करने के लिए एक दिन बनवीर ने एक विशाल सहभोज का आयोजन किया। क्योंकि वह जानता था कि यदि ये सरदार लोग अप्रसन्न रहे तो ये राणावंश के किसी भी व्यक्ति के मिलते ही उसे सिंहासनारूढ़ कर देंगे। जब सहभोज का आयोजन किया गया तो राणा के दांये-बांये बैठने वाले सरदारों में सरदार चूड़ावत था।
उस समय की परंपरा के अनुसार राणा बनवीर ने अपने थाल में से कुछ सामग्री उठाकर चूड़ावत के थाल में रख दी। इसे उस समय राजा के विशेष स्नेह का प्रतीक माना जाया करता था। चूड़ावत बनवीर को राजा तो मानता था, पर कुलीन नही मानता था, इसलिए उसे बनवीर का यह कृत्य अच्छा नही लगा। चूड़ावत मारे क्रोध के जल उठा और वह थाली से उठ गया। इतना ही नही वह अन्य सरदारों से कहने लगा कि आप लोगों को भले ही ये मेरा सम्मान लगा हो पर वस्तुत: ये मेरा अपमान है, और मैं मानता हूं कि बनवीर ने मेरा ही नही आपका भी अपमान किया है।
यह कहकर चूड़ावत तो वहां से चला ही गया, पर शेष सरदार भी भोजन को छोडक़र उठ लिये। इससे बनवीर और सरदारों के मध्य वैमनस्यता और बढ़ गयी।
उधर राजा आशाशाह ने उदय सिंह को अपना भतीजा बताकर उसकी क्षत्रियोचित शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया। कुछ लोगों की यह धारणा रही है कि उदयसिंह को वीरोचित शिक्षा-दीक्षा नही मिली, इसलिए वह अपना क्षत्रियोचित विकास करने में असफल रहा, परंतु यह भ्रांत धारणा है। वह राजा आशाशाह की छत्रछाया में शीघ्र ही एक साहसी क्षत्रिय बन गया था। उसके विषय में देवला, प्रतापगढ़, डूंगरपुर, कुंभलगढ़ के शासकों को तो ये ज्ञात ही था कि राणा सांगा का एक पुत्र अभी जीवित है, तो ये समाचार धीरे-धीरे चित्तौड़ भी पहुंच गया और जब यह समाचार चित्तौड़ के सरदारों को मिला तो उन्हें अतीव प्रसन्नता हुई। उन्होंने वास्तविकता की जानकारी करने के लिए कुंभलगढ़ जाना आरंभ कर दिया। एक-एक कर कई सरदार कुंभलगढ़ होकर आये।
उधर एक दिन बनवीर से एक सेवक ने कह दिया कि उदयसिंह अभी जीवित है तो उसने उदयसिंह के विषय में सही जानकारी देने के लिए पन्ना को दरबार में बुला भेजा। पर पन्ना बड़ी समझदारी से बनवीर को मूर्ख बनाने में सफल हो गयी और बनवीर को पुन: विश्वास हो गया कि उदयसिंह अब जीवित नही है। वैसे भी वह यह मानता था कि उदयसिंह का वध उसने स्वयं ही किया है, अत: उसके जीवित होने का कोई प्रश्न ही नही है।

उदय सिंह का राज तिलक:


अब उदयसिंह के विषय में सही जानकारी मिलने पर चित्तौड़ के कई सरदार एक साथ कुंभलगढ़ गये तो राजा आशाशाह ने उन्हें उदयसिंह के विषय में स्पष्ट कर दिया कि उसे यहां भेजने के लिए पन्नाधाय धन्य है। सारे सरदार पन्ना के त्याग से अभिभूत हो उठे। उन्होंने बूंदी के हाड़ा सरदार तथा पन्ना को गुप्त रूप से कुंभलगढ़ बुलवा लिया।
पन्ना आशाशाह के दरबार में पहुंची। उदयसिंह एक बार तो उसे पहचान नही पाया, पर जब उसने पन्ना की आंखों में आंसू देखे तो उसे उसका चेहरा स्मरण हो आया और वह दौडक़र उसकी छाती से चिपट गया
पन्ना रोती जाती थी और उदयसिंह पर अपने ममत्व की वर्षा भी करती जाती थी। हर हृदय ने मां पन्ना के असीम त्याग और बुद्घि चातुर्य को मुक्त कंठ से सराहा और उस देवी के प्रति सबके हृदय में श्रद्घा का सागर उमड़ आया। आशाशाह के प्रति भी सभी सामंतों ने आभार व्यक्त किया।
1540 ई में सभी सामंतों ने माता पन्नाधाय की उपस्थिति में कुंभलगढ़ के राजसिंहासन पर बिठाकर राणा उदयसिंह का राजतिलक किया। पन्ना की आंखों में पुन: आंसू छलक आये, वह अपने आपको आज धन्य मान रही थी।
उदयसिंह के जीवित होने की सूचना अब बनवीर को भी मिल गयी थी, इसलिए वह उससे युद्घ के लिए सेना तैयार करने लगा। उधर अपने सरदारों के साथ उदयसिंह भी चित्तौड़ के लिए चल दिया। चित्तौड़ के निकट महोली नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में घमासान युद्घ हुआ। बनवीर को अंत में युद्घ क्षेत्र से भागना पड़ा और वह चित्तौड़ दुर्ग में ही आकर छिप गया।
तब राणा उदय ने उसका पीछे करते हुए चित्तौड़ में प्रवेश किया। चित्तौडग़ढ़ का पहरेदार राणा सांगा का निष्ठावान व्यक्ति था जिसने राणा उदयसिंह का सहयोग करने का मन बनाया और भीतर आने की बात कहकर बनवीर से दुर्ग का द्वार रात में खोलने की अनुमति प्राप्त कर रात्रि में द्वार खोल दिया।
द्वार खुलते ही राणा उदयसिंह की सेना भीतर प्रविष्ट हो गयी। किले में भयंकर युद्घ हुआ और बनवीर मार दिया गया। प्रात: काल होते-होते चित्तौड़ पर राणा उदयसिंह का ध्वज लहरा उठा। यह घटना जुलाई 1540 ई. के प्रारंभ की है। उस समय राणा उदयसिंह की आयु 18 वर्ष की थी। राणा का यहां विधिवत राजतिलक किया गया
उदयसिंह अपने सिंहासन से उतरा और उसने धायमाता की चरण वंदना की।

Monday, December 31, 2018

RRB JE Requirement 2019

आरआरबी जुनियर इंजीनियर भर्ती में संशोधन-

भारतीय रेलवे ने कनिष्ठ अभियंता भर्ती की संख्या को संशोधित और कम किया है।

आरआरबी जेई भर्ती 2019: 

जुनियर इंजीनियरों की भर्ती के लिए विस्तृत विज्ञापन जारी करने के केवल एक दिन बाद, रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) ने पहले जारी की गई रिक्तियों की संख्या को संशोधित करते हुए एक और अधिसूचना जारी की। भारतीय रेलवे बोर्ड  द्वारा संशोधन के बाद, उपलब्ध रिक्तियों की संख्या में कुछ कमी आई है। पहले विज्ञापित 14,033 रिक्तियों के बजाय, आरआरबी अब केवल 13,487 पदों के लिए भर्ती करेगा।

रिक्तियों को संख्या को 546 कम कर दिया गया है। नतीजतन प्रत्येक पद के लिए रिक्तियों की संख्या भी कम हो गई है।

कनिष्ठ अभियंता के लिए 13,034 पदों की जगह, अब केवल 12844 पदों पर कनिष्ठ अभियंता के लिए भर्ती होगी

कनिष्ठ अभियंता (सूचना प्रौद्योगिकी) रिक्ति की संख्या 49 की जगह 29 हो गई है। डिपो मैटेरियल सुपरिटेंडेंट के लिए रिक्तियों की संख्या 456 से घटाकर 227 कर दी गई है, और रासायनिक और धातुकर्म सहायक रिक्तियों की संख्या 494 से घटकर 387 हो गई है। ।

जूनियर इंजीनियर और अन्य रिक्तियों का श्रेणी-वार वितरण भी बदल गया है।

आरआरबी जेई भर्ती इस वर्ष भारतीय रेलवे द्वारा घोषित प्रमुख भर्ती में से एक है। भारतीय रेलवे ने एएलपी और तकनीशियन रिक्तियों के लिए रिक्तियों की संख्या को संशोधित किया था और परिणामस्वरूप ग्रुप सी पदों के लिए रिक्तियों की संख्या में वृद्धि हुई थी।

आरआरबी जेई भर्ती के लिए आवेदन प्रक्रिया 2 जनवरी, 2019 से ऑनलाइन मोड में शुरू होगी।

इस प्रकार भारतीय रेलवे भर्ती बोर्ड में 2018-19 में बेरोजगार युवाओं के लिए नौकरियों का पिटारा खोल दिया। इससे पहले 64000 लोको पायलट एवं तकनीशियन पदों पर भर्ती के लिए प्रक्रिया चालू है, और 64000 से ज्यादा ग्रुप डी के पदों के लिए भी प्रक्रिया चालू है। अब लगभग 14000 पदों पर इस भर्ती का आयोजन करवा रहा है।

Thursday, December 6, 2018

Murti Puja | मुर्ति पूजा | उपवास | माला फेरना | सामाजिक एवं वैज्ञानिक तथ्य

 Murti Puja | मुर्ति पूजा | उपवास| माला फेरना | सामाजिक एवं वैज्ञानिक तथ्य

मूर्ति पूजा, उपवास एवं माला फेरने संबंधित  जानकारी (सामाजिक एवं वैज्ञानिक तथ्यों सहित)

लोग मूर्ति पूजा क्यों करते हैं-

मनुष्य का चंचल मन बङा चलायमान होता है। वह इधर-उधर भटकता रहता है, मनुष्य चाह कर भी अपने चंचल मन की चंचलता को नहीं रोक पाते हैं। मन की चंचलता को स्थिर करने का एकमात्र साधन मूर्ति पूजा ही है। मूर्ति पर दृष्टि रखने से उस मूर्ति के प्रति भावना जागृत होती है, और यह भावना ही मन की चंचलता को केंद्रित करती है। मूर्ति पूजा का प्रचलन हिंदू धर्म में ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों में भी है।
जैसे सिख धर्म के लोग गुरु ग्रंथ साहिब की पूजा करते हैं। ईसाई लोग पवित्र क्रॉस की पूजा करते हैं। मुसलमान कुरान शरीफ को मान्यता देते हैं। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को गुरु मानकर उनकी प्रतिमा स्थापित करके बाण विद्या में निपुणता ग्रहण की थी।
इस प्रकार भावना को उभारने हेतु मूर्ति आवश्यक है।

 Murti Puja | मुर्ति पूजा | उपवास| माला फेरना | सामाजिक एवं वैज्ञानिक तथ्य
Murti Puja

 Murti Puja | मुर्ति पूजा | उपवास| माला फेरना | सामाजिक एवं वैज्ञानिक तथ्य

लोग व्रत उपवास क्यों रखते हैं-


धार्मिक व्यक्ति अपने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए व्रत, उपवास रखते हैं। धार्मिक लोगों का विश्वास है कि देवी देवता प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण- 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार उपवास रखने से शरीर सौष्टव बनता है। अन्न की मादकता कम होती है। भोजन के बाद आलस्य आता है, कभी कभी पेट में गैस बन जाती है, कभी कभी खट्टी डकार आने लगती है। इन चीजों से छुटकारा पाने के लिए हफ्ते में एक बार व्रत रखते हैं। मोटापा कम करने के लिए भी मनुष्य उपवास ररखते है।

 लोगों के माला फेरने का कारण-

माला एक पवित्र वस्तु है। यह शुद्ध तथा पवित्र वस्तुओं द्वारा बनाई जाती है। इसमें 108 मनके होते हैं। ये 108 मनके साधक को जप की संख्या की गणना करने में सहायक होते हैं। इन 108 मनको का भी एक रहस्य है। भारतीय मुनियों ने 1 वर्ष में 27 नक्षत्र बताएं हैं, प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। इस प्रकार 27×4= 108। यह संख्या पवित्र ही नहीं अत्यंत पवित्र मानी गई है।
जब करते समय साधक को होठ एवं जीभ को हिलाना पड़ता है। इससे कण्ठ की ध्वनियां प्रभावित होती है। जिसके कारण साधक को कंठमाला, गलगंड आदि रोग होने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार के रोगों से बचने के लिए औषधि युक्त काष्ट, तुलसी रुद्राक्ष आदि की माला गले में धारण करनी चाहिए।

विभिन्न प्रकार की मालाओं के धारण करने के लाभ

  1. कमलगट्टे की माला- शत्रु विनाश हेतु
  2. तुलसी की माला- भगवान विष्णु को प्रसन्न करने हेतु
  3. हरिद्रा की माला- विघ्न हरण के लिए
  4. सर्पहड्डी की माला- मारण एवं तामसी कार्यों के लिए
  5. जीव पुत्र की माला- संतान गोपाल का जप करने के लिए
  6. कुश-ग्रंथि की माला- पाप नाश करने के लिए
  7. व्याघ्र नख की माला- नजर एवं टोने टोटके से बचने के लिए
  8. रुद्राक्ष की माला- दीर्घायु होने के लिए जब महामृत्युंजय का                            जाप करने हेतु 

माला फेरने के लाभ-

माला फेरते समय अंगूठे और अंगुली के घर्षण से एक प्रकार की विद्युत उत्पन्न होती है, जो धमनियों द्वारा होकर सीधी हृदय चक्र को प्रभावित करती है जिससे चंचल मन स्थिर हो जाता है।
एक्यूप्रेशर द्वारा इलाज एक ऐसी विद्या है जो शरीर की विभिन्न नसों से इलाज करने की पद्धति है। विद्वानों ने मनुष्य की नसों का अध्ययन करने के बाद इस विधा का नाम एक्यूप्रेशर रखा। दोनों हाथों की हथेलियों के विभिन्न भागों को दबा-दबा कर शरीर के अन्य भागों का इलाज इस विधा के अंतर्गत किया जाता है।
मध्यमा अंगुली की नस का सीधा संबंध हृदय होता है। इसलिए माला जपते समय अंगूठे के साथ मध्यमा अंगुली का प्रयोग किया जाता है।
इस प्रकार जो भी कार्य हमारे धर्म में हमारे पूर्वज करते आए हैं ,वह वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत लाभदायक है।

Wednesday, December 5, 2018

RRB ALP&TECHNICIAN | Loco Pilot | CBT2 2018

RRB(Railway requirement board) released a notification about various post of group C assistant loco pilot & technician post. according to new notification the revise result of 1st stage CBT will release by 20th December, 2018.
rrb_loco_pilot_technician

The exam for 2nd stage CBT will held on 21,22&23rd January,2019.
This is a good news for about 37lacs candidate who attend 1st stage CBT held in 10th july to 31st july,2018, and waiting for this by long time.


As your known RRB released a notification for group C post in jan. 2018 for 26502 posts and after this RRB increase it more about 64000 posts.

Saturday, December 1, 2018

देशभक्त । स्वामी भक्त । वीर दुर्गादास राठौड़

परिचय- 

            मारवाड़ के वीर दुर्गादास राठौड़ मैं देश भक्ति तथा स्वामी भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। दुर्गा दास का जन्म 1638 ईस्वी में हुआ था उनके पिता आसकरण दुनेरा के जागीरदार थे। पत्नी से नाराजगी के कारण आसकरण ने दुर्गादास व पत्नी को अकेला छोड़ दिया। दुर्गादास अपनी मां के साथ लूणा के गांव में रहने लगे। शिवाजी की मां की तरह दुर्गादास की मां ने भी उनमें मारवाड़ के प्रति देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भर दी।

अजीत सिंह की रक्षा-

  • 1678 ईस्वी में जमरूद में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु हो गई। 19 फरवरी 1679 को जसवंत सिंह की दो विधवा रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया- अजीत सिंह एवं दलथम्मन। शीघ्र ही दल थम्मन की मृत्यु हो गई औरंगजेब मारवाड़ के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हस्तक्षेप करके वहां पर इंद्र सिंह को अपना कठपुतली शासक बनाना चाहता था। उसने जोधपुर पर अधिकार कर लिया और चाटुकार इंद्र सिंह को जोधपुर दे दिया औरंगजेब के आदेश से जसवंत सिंह की दोनों रानियों तथा अजीत सिंह को दिल्ली लाया गया। राठौङ सरदारों ने औरंगजेब से प्रार्थना की की अजीत सिंह को मारवाड़ का शासक घोषित किया जाए परंतु औरंगजेब ने यह कहा कि यदि अजीत सिंह इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले, तो उसे जोधपुर का शासक बनाया जा सकता है। परंतु राठौङ सरदारों ने इस अपमानजनक शर्त को मानने से इनकार कर दिया। औरंगजेब ने बालक अजीत सिंह तथा रानियों को दिल्ली में ही रखने का आदेश दिया। राठौङ सरदारों को औरंगजेब की नियत में खोट दिखाई दे रही थी वे चाहते थे कि अजीत सिंह राज परिवार सहित जोधपुर पहुंचे जाए।
  • वीर दुर्गादास की योजना अनुसार सरदारों ने संकल्प किया कि अपने प्राणों की आहुति देकर भी वे राठौड़ राज परिवार को सकुशल मारवाड़ पहुंचाएंगे। योजना अनुसार वीर दुर्गादास अपने सहयोगी राठौर सरदारों के साथ रूप सिंह की हवेली से बड़ी चालाकी से अजीत सिंह को लेकर मारवाड़ की ओर निकल गए। औरंगजेब ने दुर्गादास का पीछा करने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी। राठौड़ रणछोड़ दास ने इस मुगल सैनिक टुकड़ी से संघर्ष किया और अपने सहयोगीयों के साथ मारा गया। तब तक दुर्गादास काफी आगे निकल गए दुर्गादास ने शाही दल को रोके रखा जब तक राजपरिवार आगे बढ़ चुका था। संध्या समय होते होते शत्रुओं से बचकर दुर्गादास अजीत सिंह से जा मिला शाही सेना दिल्ली लौट गई। इस प्रकार दुर्गादास राठौड़ की सूझबूझ एवं राठौड़ सरदारों के बलिदान के बल पर अजीत सिंह सुरक्षित जोधपुर पहुंच गया

मारवाड़ मुगल संघर्ष में दुर्गादास राठौर की भूमिका-    

  • मारवाङमुगल संघर्ष में भी दुर्गादास राठौड़ की महत्वपूर्ण भूमिका रही। दुर्गादास ने अपनी कूटनीति के माध्यम से तथा मेवाड़ के सहयोग से औरंगजेब के पुत्र अकबर को बादशाह बनाने का प्रलोभन देकर अपनी और कर लिया। अकबर ने मारवाड़ के नाडोल नगर में स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। परंतु औरंगजेब  ने अपनी कूटनीतिक योग्यता से अकबर के विद्रोह को दबा दिया। फिर भी राठौड़ों ने मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।
  •  1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई इस स्थिति का लाभ उठाकर अजीत सिंह ने मारवाड़ पर आक्रमण कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दुर्गादास ने स्वामि-भक्ति तथा सैनिक योग्यता के बल पर अजीत सिंह को मारवाड़ का शासक बना दिया।


 दुर्गा दास की धार्मिक सहिष्णुता-

  • दुर्गादास राठौड़ ने अकबर के पुत्र बुलंद अख्तर तथा पुत्री सफमुतिन्निसा को अपने पास रख कर धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। उनके लिए मुस्लिम शिक्षा दीक्षा की व्यवस्था की ओर ससम्मान उन्हें औरंगजेब के पास पहुंचाया।

अजीत सिंह और दुर्गादास में मतभेद-

  •  मारवाड़ में अजीत सिंह से भी अधिक सम्मान दुर्गादास राठौड़ का था। सरदारों की परिषद भी अजीत सिंह से अधिक दुर्गादास की सलाह का आदर करती थी। इससे अजीत सिंह दुर्गादास से ईर्ष्या करने लगा और वह दुर्गादास से नाराज रहने लगा। अजीत सिंह दुर्गादास की युद्ध नीति के अच्छे सुझावों का भी विरोध करने लगा। यदि अजीत सिंह दुर्गादास के सिद्धांतों पर चलता तो मारवाड़ की गौरवपूर्ण स्थिति होती।

दुर्गादास का मेवाड़ आगमन- 

  • अजीत सिंह के नाराज हो जाने पर दुर्गादास जोधपुर छोड़कर उदयपुर (मेवाड़) चला गया यहां मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह ने दुर्गादास को विजयपुर की जागीर प्रदान कर दी और ₹500 प्रतिदिन देने की व्यवस्था की। दुर्गादास को रामपुर का हाकिम भी बना दिया गया। 22 नवंबर, 1718 को 80 वर्ष की आयु में उज्जैन में दुर्गा दास का देहांत हो गया।

Friday, November 30, 2018

नमस्ते और गुड मॉर्निंग कहना क्यों अनुचित है

 नमस्ते शब्द की रचना संस्कृत भाषा में नम: और ते से हुई है। नम: + ते = नमस्ते। नम: का अर्थ है झुकना और ते का अर्थ है तू।
इस प्रकार तू शब्द बहुत ही अव्यवहारिक शब्द है जो कि सम्मान को ठेस पहुंचाता है। यदि कोई अपने गुरुजन, बुजुर्ग या अपने से उम्र में बड़े व्यक्ति को नमस्ते कहता है तो क्या यह उचित लगेगा या नहीं ?

अभिवादन हेतु गुड मॉर्निंग आदि अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन पाश्चात्य संस्कृति में है। कितने आश्चर्य की बात है कि अभिवादन के इन शब्दों में कहीं भी ईश्वर का नाम नहीं आता है और न ही कृतज्ञता प्रकट होती है, जबकि जय श्री राम, राधे कृष्ण, सीता राम आदि शब्दों के उच्चारण मात्र से ही जीभ पवित्र हो जाती है।
यदि किसी के घर में रात को चोरी हो जाती है या कोई अप्रिय घटना घटित हो जाती है और सुबह उसके घर संवेदना प्रकट करने हेतु जाकर उससे गुड मॉर्निंग कहेंगे तो वह जल भुन कर राख हो जाएगा, क्योंकि उसकी सुबह तो अच्छी की जगह खराब हो गई है इसकी जगह यदि आप राम राम कहेंगे तो सामने वाला प्रेम पूर्वक आपका अभिवादन स्वीकार करेगा।

अभिवादन का सही ढंग-  

अपने गुरुजनों रिश्तेदारों तथा अपने से बड़ी आयु वाले व्यक्तियों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए अपनी हम उम्र के सगे संबंधी तथा मित्रों आदि से मिलने पर देवताओं के नाम का उच्चारण कर हाथ जोड़कर उनका अभिनंदन करना चाहिए जैसे जय श्री राम, जय श्री कृष्णा, जय माता दी, राधे-राधे,  राधे-कृष्णा आदि

ईश्वर का अभिवादन करने का सही ढंग-

 ईश्वर का अभिवादन करने का सही ढंग है कि हम प्रतिदिन वेद पाठ, स्तोत्र पाठ श्रद्धा भक्ति से करें एवं उन्हें साष्टांग प्रणाम करें।
साष्टांग प्रणाम करने से देवी देवता के सामने नेत्र, मस्तक तथा संपूर्ण शरीर झुक जाता है तथा अहम् भावना नष्ट होकर प्रभु के चरणों में समर्पित हो जाते हैं।

जय श्री राम

Monday, November 26, 2018

जायल रो मायरो

यह बात लगभग 500 साल पहले की है, उस समय नागौर में दो चौधरी रहा करते थे नाम था गोपाल जी और धर्मा जी ।गोपाल जी जायल गांव के बासट कॉम के जाट और धर्माजी खियाला गांव के बिडियासर कॉम के जाट थे।
दोनों चौधरी दिल्ली के सुल्तानों के लिए किसानों से लगान  संग्रहण का कार्य करते थे और हर वर्ष सुल्तान के पास दिल्ली पहुंचाते थे। इस वर्ष भी दोनों चौधरी लगान की सारी रकम ऊंटों पर लादकर सुबह जल्दी जायल से दिल्ली के लिए रवाना हुए शाम होने तक दोनों जायल से लगभग 55-60 कोस दूर जयपुर के पास हरमाड़ा गांव पहुंचे दोनों बहुत थक गए थे और ऊंटों को भी आराम करवाना था इसलिए दोनों हरमाड़ा गांव की सरहद पर कुए के पास रात्रि विश्राम के लिए रुक गए।
हरमाड़ा गांव में इसके अगले दिन गुर्जर जाति की लिछमा नामक औरत की पुत्री का विवाह था लेकिन लिछमा के पीहर में उसका अपना कोई भाई बहन या परिवार वाला नहीं था इसलिए विवाह की पवित्र रस्म भात या मायरा भरने वाला कोई नहीं था। लिछमा की पुत्री के विवाह के साथ साथ उसकी देवरानी और जेठानी की पुत्रियों का भी विवाह था तो लिछमा की सास, देवरानी, जेठानी और अन्य परिवार की औरतों ने लिछमा पर तंज कसे और कहा की भात बिना कोई विवाह संपूर्ण हुआ है क्या हमारे ऐसे दुर्भाग्य है कि तेरे जैसी बहू हमारे परिवार में आई ऐसा दिन दिखाने से पहले मर क्यों नहीं गई इसी तरह सारी बातें सुनकर लिछमा के मन में मरने का ख्याल आ गया और वह पानी लाने का बहाना बनाकर कुए पर चली गई और उसी कुएं पर बैठकर जोर जोर से रोने लगी। उसी कुएं पर दोनों चौधरियों ने अपना डेरा जमा रखा था औरत के रोने की आवाज सुनकर दोनों चौधरी लिछमा के पास गए और बोले अरे बहन ऐसी कौन सी नौबत आई जो तुम इतनी रात गए कुए पर बैठकर रो रही है फिर लिछमा ने दोनों चौधरियों को अपनी पूरी कहानी सुनाई।
चौधरियों ने कहा बस इतनी सी बात और तुम जान देने चली आई आज से हम तेरे धर्म के भाई हैं तू हमारे राखी बांध और हम तेरे भात भरेंगे लिछमा थोड़ी सी विचलित हुई फिर चौधरियों ने कहा लिछमा चीर फाड़ और बांध कलाई पर कल सुबह तेरे भाई भात भरेंगे इस प्रकार चौधरियों की जबान से आश्वस्त होकर लिछमा घर चली गई।
फिर चौधरियों ने सोचा भात भरने का तो बोल दिया और पैसा कहां से लाएंगे पैसा तो सारा बादशाह का है वह भी छोटी मोटी रकम नहीं पूरी 22000 अशर्फियां और इनमें  इन में हेरफेर करना अपनी मौत को बुलावा देना है लेकिन दोनों ने लिछमा को जुबान दे दी थी उन्होंने सोचा की "जुबान देकर नट जाएं, इससे अच्छा है कि कट जाएं" भात तो भरेंगे ही बादशाह जो करेगा देखा जाएगा।
 दोनों जयपुर की ओर रवाना हो गए रात में ही बहुत सारे उपहार वस्त्र आभूषण आदि लिए और सुबह होते होते वापस हरमाड़ा गांव पहुंच गए। सुबह जब गांव वालों को पता चला कि लिछमा के धर्म के भाई आए हैं और भात भी भरेंगे तो सभी आश्चर्यचकित रह गए दोनों चौधरियों ने लिछमा को नौरंगी चुनरी उड़ाई और सभी गांव वालों को उपहार दिए और लगान की पूरी राशि का भात भर दिया इस प्रकार बहन के सम्मान की रक्षा कर दोनों भाई सारी रकम का भात भर के हाथ जोड़कर दिल्ली की ओर रवाना हो गए।
 दिल्ली जाकर बादशाह को सारी कहानी बताई बादशाह ने इस बात की सत्यता की जांच करवाई और बात सही पाई तो वह बहुत खुश हुआ और दोनों को शाबाशी दी और कहा धन्य है वह मां बाप और जमीन जिसने तुम्हें जन्म दिया बादशाह ने खुश होकर उन्हें माफ किया और हजार बीघा जमीन उपहार स्वरूप दी।
इस प्रकार दोनों चौधरी 1000 बीघा जमीन के साथ साथ हजारों वर्षों के लिए अपना नाम कमा लाए
 आज भी राजस्थान में बहने रक्षाबंधन और भात के गीतों में में उनके सम्मान में अपने भाई को उनके जैसा बनने के लिए कहती है
और यह पंक्तियां गाई जाती है
"बीरा तू बन जे जायल रो जाट
 बनजे खियाला रो चौधरी" 

Saturday, November 24, 2018

RRB ALP & TECHNICIAN result

RRB ALP result: Railway Recruitment Board (RRB) of Indian Railways is preparing  revise ALP & TECHNICIANS resultWhen the result will be ready, the same will be released on the official websites of 21 RRBs.
Hii